स्वास्थ्य चिकित्सा
हमारे यहां स्वास्थ्य क्षेत्र में चिकित्सकों की कमी, सस्ती सुलभ और गुणवत्तायुक्त स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच, उन पर भरोसा और उनकी कारगरता हमेशा से ही सवालों के घेरे में रही है। मेडिकल जर्नल लैंसेट के 2018 के एक अध्ययन के मुताबिक, स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और लोगों तक उनकी पहुंच के मामले में भारत विश्व के 195 देशों में 145वें पायदान पर है। भारत 195 देशों की सूची में अपने पड़ोसी देश चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका और भूटान से भी पीछे है।
विश्व आर्थिक मंच ने 2019 में कहा कि भारत स्वास्थ्य जीवन प्रत्याशा से संबंधित सूचकांक में काफी निराशाजनक है। भारत 141 देशों के सर्वे में 109 वें स्थान पर है। वहीं साल 2019 के वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा सूचकांक के अनुसार 195 देशों में भारत 57वें स्थान पर है।
भारत सरकार द्वारा गत 20 नवंबर को आयुष मंत्रालय के तहत आने वाले भारतीय औषधि परिषद की ओर से जारी अधिसूचना में कहा गया है कि आयुर्वेद में स्नातकोत्तर स्तर की पढ़ाई करने वाले डॉक्टर भी अब हड्डियों के ऑपरेशन के साथ आंख, नाक, कान व गले की सर्जरी कर सकेंगे। इस अधिनियम के द्वारा आयुष डॉक्टर को कुल 58 तरह की सर्जरी की अनुमति प्रदान की गई है। इस निर्णय को लेकर देश भर के डॉक्टर व स्वास्थ्य विशेषज्ञों के बीच बहस छिड़ गई है।
लेकिन आयुष और एलोपैथिक की पूरी बहस में 'ट्रेडिशनल हीलर्स' कहीं नहीं हैं। ये हीलर्स ही हैं, जो नित नए नुस्खे खोजकर लाते हैं। जड़ी-बूटियों से इलाज की परंपरा पुरानी है, हालांकि इसके वैज्ञानिक आधार को लेकर भी बहस होते रहती है। भारत में आयुर्वेद का इतिहास 2,500 वर्ष पुराना है। सुश्रुत संहिता में शल्य व शालक्य क्रियाओं का वर्णन किया गया है। एलोपैथिक दवाओं का इतिहास 200 साल से भी कम का है। अपने देश में तो पहले मेडिकल कॉलेज की स्थापना ही 1835 में कोलकाता में हुई थी।
ये ट्रेडिशनल हीलर्स ही हैं, जो सदियों से अस्पताल व मरीज के बीच में अहम भूमिका निभाते रहे हैं। राजस्थान के रेगिस्तान, बस्तर के जंगल व पहाड़ जैसे दुर्गम इलाकों में जहां दूर-दूर तक कोई डॉक्टर या दवा उपलब्ध नहीं होती, पारंपरिक इलाज ही आरंभिक तौर पर लोगों का सहारा बनता है। यदि कोई इमरजेंसी होती है, तो उसका प्राथमिक उपचार भी यही लोग करते हैं। रात्रि में दाई की भूमिका भी यही लोग निभाते हैं।
स्वास्थ्य चिकित्सा
इन ट्रेडिशनल हीलर्स के तौर पर घुमंतू समुदायों में गोंड, चितोड़िया, पारधी, सिंगीवाल, बैदु, कलन्दर, भोपा, जोगी- सपेरा इत्यादि शामिल हैं। आदिवासी समुदायों में मुरिया, माड़िया, गोंड व भील प्रमुख हैं। हिमालयी राज्यों में लेप्चा, भूटिया ओर नेपाली समुदाय हीलिंग के काम से जुड़े हैं। इन समुदायों के नुस्खे भी खास हैं। वाद, वाधि से लेकर सेक्स की कमजोरी, गठिया बाय, वायरल इन्फेक्शन, बच्चे के जन्म पर पिलाई जाने वाली जन्म घुट्टी से लेकर बिच्छू और मधुमक्खी के काटने, पेट गैस, बदहजमी और एसिडिटी इत्यादि जैसी दर्जनों बीमारियों और जीवन में होने वाले तनावों का ये इलाज करते हैं। ये सारे समुदाय हिमालय क्षेत्र में हरिद्वार व सिक्किम के जंगल, छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश के जंगल, नीलगिरी की पहाड़ियों तथा रेगिस्तान के क्षेत्र तथा अरावली शृंखला से जड़ी-बूटियां एकत्रित करते हैं।
वन्य जीव संरक्षण अधिनियम-1972 आने के बाद इन समुदायों के जीव-जंतुओं के रखने पर रोक लग गई। मसलन, सिंगीवाल हिरण के सींगों से इलाज करते थे। जोगी सपेरा सांप रखते हैं, जड़ी बूटियों का उनका ज्ञान उसी से जुड़ा है। सांप रखने पर रोक लग गई है। हालांकि केंद्र सरकार ने 2006 के वनाधिकार अधिनियम में सुधार कर आदिवासी समुदायों को सीमित क्षेत्र में जंगल के उत्पाद लाने की अनुमति दी, लेकिन इसमें ऐसे घुमंतू समुदाय छूट गए, जिन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं मिला है। इसी तरह से मेडिकल प्रैक्टिशनर ऐक्ट,अस्पताल की स्थापना से संबंधित कानून और दवा अधिनियम का असर भी उन समुदायों पर पड़ा, जो पारंपरिक चिकित्सा पद्धति से इलाज करते थे और आजीविका का इंतजाम करते थे
दरअसल एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति का पूरा विमर्श ही इस बात पर टिका हुआ है कि पारंपरिक चिकित्सा पद्धति पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जरूरत इस बात की है कि ट्रेडिशनल हीलिंग को वैज्ञानिक कसौटी पर कसा जाए, ताकि सदियों से प्रयोग में आ रही जड़ी- बूटियों व अन्य वनस्पतियों की उपयोगिता सिद्ध की जा सके। ट्रेडिशनल हीलर्स के दावों को परखने के लिए कोई नियामक क्यों नहीं बनाया जा सकता? कहने की जरूरत नहीं कि अंधविश्वास की इसमें कोई जगह नहीं हो सकती। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि इन समुदायों की आजीविका भी इससे जुड़ी है।
Babita patel
04-Feb-2023 05:30 PM
nice
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Niraj Pandey
09-Oct-2021 05:19 PM
वाह शानदार
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Shalini Sharma
29-Sep-2021 12:12 PM
Nice
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